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"25 मार्च/बलिदान-दिवस"*गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ के बलिदान दिवस पर कोटि कोटि प्रणाम

*गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान*

क्रांतिकारी पत्रकार श्री गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 1890 ई0 (आश्विन शुक्ल 14, रविवार, संवत 1947) को प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे हथगांव (जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना (मध्य प्रदेश) के गंगवली कस्बे में बस गये।  

प्रारम्भिक शिक्षा वहाँ के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल से लेकर गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई छूट गयी; पर तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर भाईसाहब के पास कानपुर आ गये। 

1908 में उन्हें कानपुर के करेंसी दफ्तर में 30 रु. महीने की नौकरी मिल गयी; पर एक साल बाद अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा हो जाने से उसे छोड़कर विद्यार्थी जी पी.पी.एन.हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। यहाँ भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। अतः वे प्रयाग आ गये और कर्मयोगी, सरस्वती एवं अभ्युदय नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया; पर यहाँ उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर लौट गये और 9 नवम्बर, 1913 से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।

‘प्रताप’ समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। पत्र में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भरपूर सामग्री होती थी। अतः दिन-प्रतिदिन ‘प्रताप’ की लोकप्रियता बढ़ने लगी। 

दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 23 नवम्बर, 1920 से विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।

इसके बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, वे उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। वे क्रान्तिकारियों के भी समर्थक थे। अतः उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में शुरू में तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर उनका स्वर बदलने लगे। पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ रही थी। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह आदि को फांसी हुई। इसका समाचार फैलने पर अगले दिन कानपुर में लोगों ने विरोध जुलूस निकाले; पर न जाने क्यों इससे मुसलमान भड़क कर दंगा करने लगे। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े। 

दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहाँ तक की उनकी साबुत लाश भी नहीं मिली। केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से उनकी पहचान हुई। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब अन्ध मजहबवाद की बलिवेदी पर भारत माँ के सच्चे सपूत, पत्रकार गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान हुआ।
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